बेमेतरा (संवाददाता):-भारतीय समाज के महानायक और संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर का जीवन संघर्षों और असमानताओं से भरा रहा। समाज में भेदभाव और असमानता से तंग आकर उन्होंने न केवल अपनी नौकरी छोड़ दी, बल्कि एक निजी ट्यूटर और लेखाकार के रूप में काम करना शुरू कर दिया। यह संघर्ष उनके जीवन की एक महत्वपूर्ण कड़ी बना, जो उन्हें अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर करने में सहायक साबित हुआ।
भेदभाव और निराशा के बाद नया रास्ता चुना
डॉ. अंबेडकर, जो पहले भारतीय न्यायिक सेवा में सचिव के रूप में कार्यरत थे, ने अपने जीवन में अचानक आए भेदभाव से निराश होकर अपनी नौकरी छोड़ दी थी। वे समय-समय पर समाज में व्याप्त असमानता और भेदभाव से परेशान हो गए थे। इसके बाद उन्होंने एक निजी ट्यूटर के रूप में कार्य शुरू किया, लेकिन समाजिक स्थिति और जातिवाद के कारण उनका यह व्यवसाय सफल नहीं हो सका। उनका परामर्श व्यवसाय भी इस भेदभाव की जड़ को झेल नहीं सका, और वे असफल हो गए।
शाहू महाराज और पारसी मित्र का सहयोग
यह कठिन समय डॉ. अंबेडकर के लिए एक मोड़ साबित हुआ, जब कोल्हापुर के शाहू महाराज ने उनका समर्थन किया। शाहू महाराज और उनके एक पारसी मित्र के सहयोग से वे फिर से इंग्लैंड जाने में सफल हो पाए। 1920 में, उन्होंने इंग्लैंड में उच्च शिक्षा प्राप्त करने का एक और प्रयास किया, और 1921 में उन्होंने “विज्ञान स्नातकोत्तर” (M.Sc.) की डिग्री प्राप्त की। उनके द्वारा प्रस्तुत शोध पत्र का विषय था, “प्रोवेन्शियल डीसेन्ट्रलाईज़ेशन ऑफ इम्पीरियल फायनेन्स इन ब्रिटिश इण्डिया” (ब्रिटिश भारत में शाही अर्थ व्यवस्था का प्रांतीय विकेंद्रीकरण)। इस शोध ने उनके विद्वान होने का प्रमाण दिया और उन्हें महत्वपूर्ण शैक्षिक पहचान दिलाई।
आर्थिक दृष्टिकोण और कानून में उत्कृष्टता
1922 में, डॉ. अंबेडकर को लंदन से बैरिस्टर-एट-लॉ की डिग्री प्राप्त हुई, और ब्रिटिश बार में प्रवेश मिला। इसके बाद उन्होंने अपने जीवन को एक नया दिशा देने की ओर कदम बढ़ाया। इसके अलावा, 1923 में, उन्हें अर्थशास्त्र में “डी.एस.सी.” (डॉक्टर ऑफ साईंस) उपाधि से सम्मानित किया गया, और उनकी थीसिस का विषय था, “दी प्राब्लम आफ दि रुपी: इट्स ओरिजिन एंड इट्स सॉल्यूशन” (रुपये की समस्या: इसकी उत्पत्ति और इसका समाधान)। यह विषय भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार की आवश्यकता को स्पष्ट करता था।
जर्मनी और अन्य शोध कार्य
लंदन में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉ. अंबेडकर भारत लौटते हुए तीन महीने जर्मनी में भी रुके। उन्होंने बॉन विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के विषय में और अधिक गहन अध्ययन किया, हालांकि समय की कमी के कारण वह विश्वविद्यालय में ज्यादा समय नहीं बिता सके। इसके बावजूद, उनके अध्ययन ने उन्हें अर्थशास्त्र और न्यायशास्त्र के क्षेत्र में और भी निपुण बना दिया।
सम्मान और डॉक्टरेट उपाधियाँ
डॉ. अंबेडकर ने न केवल भारत में, बल्कि विदेशों में भी अपनी कड़ी मेहनत और बुद्धिमत्ता से अपनी पहचान बनाई। 1952 में उन्हें कोलंबिया विश्वविद्यालय से “एल.एल.डी.” (कानून में डॉक्टरेट) की उपाधि प्राप्त हुई। इसके बाद, 1953 में, उन्हें उस्मानिया विश्वविद्यालय से “डी.लिट.” (डॉक्टर ऑफ लिटरेचर) की उपाधि प्राप्त हुई। ये उपाधियाँ उनकी कड़ी मेहनत और शोध कार्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का प्रतीक थीं।
उद्देश्य की ओर अग्रसर जीवन
डॉ. अंबेडकर का जीवन हमें यह सिखाता है कि भेदभाव और असमानता के बावजूद, शिक्षा और संघर्ष के माध्यम से किसी भी मुश्किल को पार किया जा सकता है। उन्होंने अपनी जिंदगी के कठिन दौर में समाज के लिए अपने कार्यों को बल दिया और अंततः भारतीय समाज में सामाजिक न्याय और समानता की नींव रखी।
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डॉ. अंबेडकर का योगदान भारतीय संविधान में
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भारतीय संविधान की रचना की और भारतीय नागरिकों को समान अधिकार देने के लिए एक मजबूत कानून की नींव रखी। उनके योगदान को न केवल भारतीय समाज ने स्वीकार किया, बल्कि पूरी दुनिया ने सराहा।
डॉ. अंबेडकर के विचार और उनका प्रभाव
डॉ. अंबेडकर के विचार आज भी भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव डालते हैं। उनका संघर्ष, शिक्षा और समाज के लिए उनके योगदान के कारण वे भारतीय इतिहास के सबसे प्रभावशाली नेताओं में गिने जाते हैं।